Aside

देव दर्शन कब नसीब में थे

मंदिर का दिया देखने पर

आँखें अंधी कर दी जाती थी .

हमारे वेद पाठ सुन लेने पर

कानो में पिघलता सीसा भरने के  

हुक्म जारी था .

तुमने एक ही काम सोंपा था

मेला ढोने का

हम सदियों से नाक तक

कीचड़ में डूबे हैं Imageआज भी .

कुछ भी नहीं बदला वरना तुम

हमारी बेटियों की इज़्ज़त पर

घिनोना हमला कर लेते क्या ?

photo taken from google with thanks.

 

 

Aside

बज़्म में उसकी माना कहकहे हैं बहुत  

मेरे पास भी रात के सन्नाटे हैं बहुत

वक़्त हर ज़ख्म को भर देता है मगर

घाव गहरा हो तो दिन लगते हैं बहुत

उसके बगेर कभी कटते नहीं थे लम्हे

उसके बगेर भी ज़माने गुज़रे है बहुत

तेरे सिवा बता आख़िर किसको पुकारें

यादे दोस्त इन दिनों अकेले हैं बहुत

वो दोलत हम किसी को नहीं दिखाते

ज़ख्म दिल में छुपा कर रखे हैं बहुत

सूखे कुओं पर बेठा है तमाम ये शहर

केसे किसी से कहें हम प्यासे हैं बहुत

चुनावी मोसम में-12

क्या वाकई सुधर गये ये लोग?

इन दिनों घर-घर गये ये लोग

वोटपेटी बंद होने तक साथ थे

फिर जाने किधर गये ये लोग

सालों ऐश का क़ीमत चंद वादे

सोदा मुफ्त में कर गये ये लोग  

मरीचिकाओं से बनाई लहरों में

डुबो कर हमें उभर गये ये लोग

जाति-धर्म का नोट का दारु का

काला वो जादू कर गये ये लोग

हवा में कटी पतंगे बना कर हमें

कोई ढूढों तो किधर गये ये लोग

घरों के जलने का अब रोना क्या

शोले रखे थे बिखर गये ये लोग

हमारा लहू पसीना पी के आलम

देखो तो केसे सँवर गये ये लोग

चुनावी मोसम में -11

इस बस्ती में

सब सलीबें दफ़न कर दी गयी हैं

मसीहाई का दावा करते बहरुपीये

कांटे राहों में बिछाते फिर रहे हैं.

तुम आज मुखोटों को चेहरा समझ रहे हो

कांटे फूल दिखाई दे रहे है तुम्हे

कल घायल पाँव लिए बेठे होगे चोराहों पर

और खेतों में फिर घोटालों की फ़सलें

लहलहा रही होंगी.

घरों की गिनती करके

चिंगारियां रखते नज़र आएँगे साए

जलते हुए मंज़र कुछ नज़रों के लिए

दिवाली का समां होगे तब .

बदलाव सिर्फ़ यही होगा

याद रखना

नफ़रतों की नई इबारते लिखी जाएँगी

इसके सिवा कुछ नहीं बदलेगा.

चुनावी मोसम में-10

केमरे,माइक्रोफोन,की-बोर्ड सब

एक ही दिशा में मुड गये हैं.

अद्रश्य हाथों की कठपुतलियाँ

चापलूसी के झिलमिल प्रकाश में

साए का कद बड़ा करने में लगी हैं.

मुखोटे से मसीहा का चेहरा बनाने की कवायद में

कोई पीछे नहीं रहना चाहता.

अखबारों से पक्षपात की घिनोनी बू आ रही है

टीवी चेनल एकतरफा बेसुरा राग गा रहे हैं

बच्चे पालने हैं सबको .

एसे में सुकरात कोन बने

जेबों से झाँकते मोटे लिफ़ाफ़े कह रहे है

कलम बिक गयी है आज.   

चुनावी मोसम में-9

सड़क,फुठपाथ,झोंपड़पट्टीयाँ

जिनके पास अधनंगे बदनों के सिवा

छिपाने को कुछ भी नहीं है

यह जनता या भोली भेड़ों की भीड़

सदा से भूखी ,प्यासी,बेघर, मुफिलिस है.

हलों,कुदालों,फावड़ों,दफ्तरों,कारखानों के लहू पसीने में डूबे हुए

उस विकास के सूद तक से वंचित हैं अभागे

जिसका समूल महाजन खा रहे है.

उदास आँखें ,टूटते शरीर हाथ फेलाए

कुछ किरण उजाले के इंतज़ार में रहते हैं

मगर आसमान पर उनके नाम का

सूरज कभी नहीं उगता…..कभी भी नहीं.

चुनावी मोसम में -8

घर से धर्म-जाति, नोट-दारु की पोट लेके निकलते है

नेता जानते हैं लोग उन्माद-नशे में बहकते-बहलते है

ये दोर है मुखोटो का,बहरुपियों का,नक्कालो-भाडॉ का

अब कहाँ वो दीवाने लोग जो सूलियों पर मचलते है

खेला था बचपन में कुर्सीयों की अदलाबदली का खेल

आज की ज़रूरतों के मुताबिक़ हम पार्टियां बदलते हैं              

वक़्त बुरा हो तो अपना घर  भी हो जाता है दुश्मन

हमने देखा है किस तरह आँसू आँखों से निकलते है

तुम समझदार हो अपने दिमाग को काम में लेते हो

हम दीवाने लोग भी अपने दिल के कहे पर चलते हैं

ये दोर है मुखोटो का,बहरुपियों का,नक्कालो-भांडों का

अब कहाँ हैं वो दीवाने लोग जो सूलियों पर मचलते है

खेला था बचपन में कुर्सीयों की अदलाबदली का खेल

आज की ज़रूरतों के मुताबिक़ हम पार्टियां बदलते हैं              

इस तरह भी रोज़ होती है महलों से कहीं दूर दीवाली

भूमाफियों के हुक्मों पर मुफलिसों के झोपड़े जलते हैं