अच्छे दिनों का फरेब कोई नया नहीं है
सूरज उगने के पहले दिन से
सर्वहारा अपने हिस्से का उजाला तलाशता रहा है
मगर हर युग में हुआ ये है
बलशाली ने निर्बल का शोषण किया है
जहां तलवारों से गर्दने नहीं काटी जा सकी
वहां चालाक ज़बानों ने भोले-भालों को छला है
निरंकुश ताकतों के हंटरों ने
किस युग में नंगी कमरों की चाम नहीं उतारी
अनगिनत दबे कुचल गये गुलाम जिन्होंने
पेरामिड के अदभुत पत्थरों को उठाया
मर गये शाहों के साथ, ज़िंदा दफन कर दिए गये बेचारे
ताज महल बना कर हाथ कटवा बेठे
वो के जिन्होंने संगे-मरमर में चांदनी बसाई थी
गोर से देखो महानता के तमाम किस्से
लहू-पसीने की सियाही से लिखे गये है
महलो ने सदा थरथराते झोंपडो की धूप खाई है
भूखे प्यासे नंगे वंचित-जन की किस्मत में
हमेशा ठोकरें हैं, लानत है, मजबूरी है, रुसवाई है
अच्छे दिन कभी नहीं आयेगे,न आते हैं
शासक वही निर्मम चेहरे होते है
बस मुखोटे बदल जाते हैं .