तेरे होने का गवाह मैं हूँ

सब के सब सियाही बन कर लिखते हैं.

उसके होने की गवाही समंदर लिखते हैं.

रूप जिसका कोई नहीं सबसे है रूपवान.

बखान उसी के रस में डूबकर लिखते हैं.

लहू के कतरों से उसकी ही हम्दो सना.

अहले जनून सूलियों के उपर लिखते हैं.

उसके बेशक्ल होने की सनद है कायनात.

उसी की शान प्रेमी पत्थर पर लिखते हैं.

किरणों को कलम बना कर उसकी स्तुर्ती.

अपने उजाले में शम्सओकमर लिखते हैं.

तुम हो अव्वल ता आखिर तुम्हारा जिक्र.

गुलुकार गा रहे हैं जो सुखनवर लिखते है.

किसने कहा ग्यानी हैं हम पागल आलम.

प्यार की तलाश में ढाई अक्षर लिखते है.sky

अंधरे का दर्पण

स्वांग ही उसका एसा है के चिकित हुए देख रहे हैं
सब आईनों को देख रहे हैं, आईने उसे देख रहे हैं
उसके वादे थे बहुत मोहक, बेहोश हुए सब के सब
जो नींद से उठे बेचारे तो खुद को ठगे देख रहे हैं
वो कह गया था जल्दी तुम्हारे अच्छे दिन आयेंगे
अच्छे दिनों की राह हम फुटपाथ पे खड़े देख रहे हैं
कुछ दरिन्दे आग को रौशनी कहते फिर रहे हैं और
शरीफ लोग ख़्वाबों में बस्ती के घर जले देख रहे हैं
इंसानियत की लाश पर नाच रहे हैं दरिन्दे हर सू
खोफज़दा बस्ती में आदमी पत्थर बने देख रहे हैंOld_guitarist_chicago
मोसम के बदलाव में बदबू लहू की आ रही है और
पथराव में घायल शीशे सर अपने कटे देख रहे हैं

जॉन एलिया(14 दिसम्बर 1931-8 नवम्बर 2002):परिचय व कुछ कलाम

उर्दू शायरी के गुलशन में हज़ारों फूलों ने अहसास की अमिट खुशबू बिखेरी है जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के दिलोदिमाग को आल्हादित करती रही है। वर्तमान लबो-लहजे में अशआर की यह खु्शबु इस कदर समायी हुई है कि शायद ही कोई दिन जाता हो जब हम बोलचाल में कोई न कोई उर्दू शेर का सहारा, अपनी बात को पुख्ता करने में नहीं लेते हों।
उर्दू शायरी के गुलशन में हज़ारों फूलों ने अहसास की अमिट खुशबू बिखेरी है. उसी के एक महकते फूल का नाम जॉन एलिया है। वर्तमान दोर के इस मकबूल शायर का जन्म 14 दिसम्बर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में रहने वाले एक सम्भ्रांत परिवार में हुआ था। जॉन साब के पिता का नाम अल्लामा शफीक हसन एलिया था, जो जाने माने विद्वान, शायर और भविष्यद्रष्टा थे। अल्लामा की सबसे छोटी औलाद जॉन एलिया साब के अतिरिक्त इनके बड़े भाई रईस अमरोही जाने माने शायर, पत्रकार और डॉक्टर थे तथा मानव मूल्यों के बड़े हिमायती थे। बाद में रईस साब की पाकिस्तान में किसी सरफिरे धार्मिक कट्टरपंथी द्वारा हत्या कर दी गयी। जॉन साब के दूसरे भाई सय्यद मोहम्मद तकी विश्व प्रसिद्ध अहमदिया चिन्तक रहे हैं। जॉन एलिया साब की पूर्व पत्नी जाहिदा हिना इंडो- पाक की सुप्रसिद्ध पत्रकार हैं तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामायिक एवं सामाजिक घटनाओं पर आज भी सक्रीय लेखन कर रही हैं। इनके लेख, विशेष रूप से– पाकिस्तान की डायरी, भारत में भी सुधि पाठक चाव से पढते हैं। जॉन एलिया साब की हिना जी से मुलाकात उर्दू साहित्यिक पत्रिका ’इंशा’ निकालने के दोरान हुई थी, जो बाद में विवाह में तब्दील हो गई। इस विवाह से जॉन साब को दो पुत्रियां और एक पुत्ररत्न प्राप्त हुए, परन्तु बाद में अप्रिय परिस्थतियों के चलते दोनों के बीच 1984 में विवाह विच्छेदन हो गया। तलाक के बाद तबियत से ही सारे जहाँ से खफा जॉन एलिया अवसाद में रहने लगे। उर्दू शायरी का यह देवदास अत्याधिक सुरापान करने और खुद को बर्बाद करने के नए-नए बहाने तलाशने लगा।
जॉन साब ने पैदाइशी रूप में संवेदनशील होने के अतिरिक्त, घर में सुसंस्कृत और सभ्य माहोल होने के कारण आठ साल की उम्र में ही पहला शेर कह लिया था। किशोर अवस्था आते आते जैसा कि अक्सर होता बाली उम्र में होता है वे एक ख्याली प्रेमिका सोफिया के सपने देखने लगे और उसी में जीने लगे। इसी दौर में देश के शासक अंग्रेजों से उनकी नफरत भी उभरने लगी और साम्यवादी विचारधारा उन्हें खासी प्रभावित करने लगी थी। उनके नजदीकी रिश्तेदार सईद मुमताज़ के अनुसार जॉन एलिया की भाषाओँ में खासी रूचि थी। बचपन में मदरसे से जहाँ उन्होंने अरबी फारसी का ज्ञान प्राप्त किया, आगे अध्यन के दौरान अंग्रेजी वे धारा प्रवाह बोलने लगे और हिब्रू और संस्कृत भी चलती फिरी सीख ली। 1947 में देश के टुकड़े होने पर जॉन का दिल भी खासा टूटा। वे साम्यवादी विचारधारा के पोषक होने के कारण धर्म के आधार पर बंटवारे के घोर विरोधी थे और हर हाल भारत में ही रहना चाहते थे। अंत में अधिकांश परिवार के पाकिस्तान चले जाने के फलस्वरूप १९५६ में कराची में जाकर बस गए। अपने आखरी समय आने तक वे अपने जन्म के शहर अमरोहा को बहुत प्यार से याद करते रहे। अपनी अर्थपूर्ण शायरी और मुशायरों में दिलफरेब अंदाज़ से प्रस्तुति के कारण जॉन एलिया पाकिस्तान में भी काफी लोकप्रिय और ख्यात नाम हो गए।
विधा के गंभीर जानकारों के अनुसार परम्परागत उर्दू शायरी की ज़मीन पर रहते हुए जॉन एलिया को सदा जीवन में आदर्श की तलाश रहती थी। वास्तविक जीवन में आदर्श कहाँ? लोगों की मक्कारी और बनावट पर उन्हें गुस्सा आता था जिसके चलते उन्होंने अपने ही अंदाज़ से नए मूल्य शायरी में स्थापित किए हैं। उनकी शायरी क्लासिक आशिक-माशूक की शायरी न होकर धरती पर रहते औरत-आदमी के प्रेम/नफरत की खुरदरी ज़मीन पर लिखी गयी शायरी है। जॉन एलिया का विरह भी आज के आदमी का है जो बादलों को संदेशवाहक बनाने के बदले माशूक से सीधा मुखातिब होता है। उनका कलाम समाज द्वारा स्थापित मूल्यों के विरुद्ध गुस्से और अपनी जिद के आगे न झुकने की शायरी है। अंतत उनकी यही हट्धर्मी उनके टूटने का कारण भी बनी लगती है। तल्ख़ हालात और अपनी तबियत की संवेदना के कारण जॉन एलिया साब खुले अराजकतावादी – शून्यवादी हो गए थे, जिनकी सदा अपने परिवेश से लड़ाई रहने लगी थी। अपने अच्छे समय में शायरी के अतिरिक्त उनके द्वारा इस्माइलिया सेक्ट पर बहुत शोधपूर्ण कार्य के साथ अन्य साहित्यिक रचनाओं का अनुवाद भी किया गया है।
जॉन एलिया साब खूब लिखते थे पर अपनी फक्कड तबियत, अलमस्तजीवन शैली और हालत से समझौता न करने की आदत के कारण इनकी पहली पुस्तक ’शायद’ मंज़र-ए-आम तक 1991 में ही आ सकी। इसके प्रकाशन में खुद जॉन एलिया साब ने खूब ढ़िलाई की और रचनाओं के चयन में ही दस से अधिक और संकलन की एडिटिंग में ही पांच वर्ष लगा दिए। खुद जॉन एलिया साब का अपने कलाम के बारे में क्या नजरिया था, देखिये –
अपनी शायरी का जितना मुन्किर मैं हूँ, उतना मुन्किर मेरा कोई बदतरीन दुश्मन भी ना होगा। कभी कभी तो मुझे अपनी शायरी ……. बुरी, बेतुकी …… लगती है… इसलिए अब तक मेरा कोई मज्मूआ शाये नहीं हुआ.. और जब तक खुदा ही शाये नहीं कराएगा उस वक्त तक शाये होगा भी नहीं…।
नजदीकी मित्रों की काफी समझाइश से ही जॉन साब ने पुस्तक का मसौदा फाइनल किया। यह दिलजला शायर तब तक तिल-तिल मरता हुआ ज़िदा लाश बन चुका था। इस अनूठे शायर, विद्वान और मनीषी को तल्ख़ हालत ने पहले ही घायल किया हुआ था उस पर हद दर्जे के मदिरापान ने कोढ़ पर खाज का काम कर उन्हे अर्धविशिप्त सा बना दिया था। मुशायरों और काव्यगोष्ठियों में जाना लगभग बंद करके यह शायर अपने आप में ही सिमट कर रह गया था। अगर किसी महफ़िल में पहुंचे भी तो नशे में चूर बेहाल खुद ही अपने मेंटल होने का ऐलान करते हुए।आखिर मित्रों के बहुत प्रयास से उनका शायरी का दीवान प्रकाशित हुआ. उनकी पुस्तक ’शायद’ को लोगों ने हाथों हाथ लिया, पढ़ा और सराहा। किताब के नौ संस्करण जल्द ही निकल गए। इससे जॉन एलिया साब की लोकप्रीयता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। पर जॉन एलिया से तो किस्मत नाराज़ सदा से थी, शायद इसी लिए इस मुमताज़ शायर, विद्वान और अत्याधिक संवेदनशील इंसान ने 8 नवम्बर 2002 को अपने सभी प्यारों से दूर एक दोस्त के घर लंबी बीमारी के बाद, इस बेरहम दुनिया को अलविदा कह दिया।
जॉन साब की कविताओं का अगला संकलन ‘यानि’ उनके मरणोपरांत सन 2003 में प्रकाशित हुआ। तदुपरांत उनके नजदीकी मित्र खालिद अंसारी द्वारा उनकी कविताएँ गुमान (2004), लेकिन (2006) और गोया (2008) नाम से पुस्तकों के रूप प्रकाशित की गईं और इन किताबों ने साहित्यिक हलकों में खासी लोकप्रिय पायी। जॉन एलिया साब ने शायरी विधा के लगभग सभी घटक ग़ज़ल, नज़्म, और कते आदि बहुत खूब लिखे हैं। जॉन एलिया जीवन की बिसात पर तो नाकामयाब इंसान थे ही साहित्यिक दुनिया में भी गुटबंदी और अलमस्त तबियत के चलते उन्हें वो मुकाम हासिल नहीं जिसके वे हकदार थे। जॉन साब के विशाल खजाने से कुछ रचनायें सुधि पाठकों के समक्ष पेश करने की एक अदना सी कोशिश की जा रही है।
गज़ल
गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
तुमसे मिल कर बहुत खुशी हो क्या
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझको यक्सर भुला चुकी हो क्या
याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हे
मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या
बस मुझे यूँही एक ख्याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या
अब मेरी कोई जिंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी जिंदगी हो क्या
क्या कहा इश्क जाविदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या
हाँ फज़ा यहां की सोई सोई सी है
तो बहुत तेज रौशनी हो क्या
मेरे सब तंज बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या
दिल में अब सोजे इंतज़ार नहीं
शमे उम्मीद बुझ गयी हो क्या
जाविदानी-अमर, तंज-व्यंग
नज्में
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तनहाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
इन किताबों ने बडा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन-में एक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़हन
मुज़दा-ए-इशरत अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता
[ रम्ज़=जादू ,रहस्य ,मुज़्दा =अच्छी खबर ,इशरत= खुश जिंदगी ]

मुझ से पहले के दिन
अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हे
ख्वाब ओ ताबीर के गुमशुदा सिलसिले
बारह अब सताने लगे हैं तुम्हे
दुःख जो पुहंचे थे तुमसे किसी को कभी
देर तक अब जगाने लगे हैं तुम्हे
अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हे
अपने वो अहद ओ पेमा मुझे से जो न थे
क्या तुम्हे मुझसे कुछ भी कहना नहीं
अहद ओ पेमा-वादे
कतात
शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज़ से काम क्यों नहीं लेती
आप, वो, जी, मगर यह सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेती

सालहा साल और एक लम्हा
कोई भी तो ना इनमे बल आया
खुद ही एक दर पर मैंने दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया

मेरी अक्लो होश की सब हालते
तुमने साँचे में जुनु के ढाल दी
कर लिया था मैंने एहदे तर्के-इश्क
तुमने फिर बाहें गले में ड़ाल दी
एहदे तर्के-इश्क-प्रेम विच्छेद का वादा
ग़जलें
किसी लिबास की खुशबू जब उड़ के आती है
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है
तेरे गुलाब तरसते हैं तेरी खुशबू को
तेरी सफ़ेद चमेली तुझे बुलाती है
तेरे बग़ैर मुझे चैन कैसे पड़ता हैं
मेरे बगैर तुझे नींद कैसे आती है

कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग होंगे जो उसको भाते होंगे
उसकी याद की बादेसबा और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
यारो कुछ तो जिक्र करो तुम उसकी क़यामत बाहों का
वो जो सिमटते होंगे उनमे वो तो मर जाते होंगे
बादेसबा-सुबह की पवन

हालतेहाल के सबब हालतेहाल ही गयी
शोक में कुछ नहीं गया शोक की जिंदगी गयी
एक ही हादसा तो है और वो यह की आज तक
बात नहीं कही गयी बात नहीं सुनी गयी
बाद भी तेरे जानेजाँ दिल में रहा अजब समां
याद रही तेरी यहाँ फिर तेरी याद भी गयी
उसकी उम्मिदेनाज़ का हमसे यह मान था के आप
उम्र गुजार दीजिए उम्र गुजार दी गयी
उसके विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालतेदिल थी खराब और खराब की गयी
तेरा फिराक जानेजाँ ऐश था क्या मेरे लिए
तेरे फ़िराक में खूब शराब पी गयी
उसकी गली से उठ के में आन पड़ा था अपने घर
एक गली की बात थी और गली गली गयी
विसाल –मिलन ,फ़िराक-विरह
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अजब एक शोर सा बरपा है कहीं
कोई खामोश हो गया है कहीं
है कुछ एसा के जेसे ये सब कुछ
अब से पहले भी हो चुका है कहीं
जो यहाँ से कहीं ना जाता था
वो यहाँ से चला गया है कहीं
तुझ को क्या हो गया के चीज़ों को
कहीं रखता है, ढूढता है कहीं
तू मुझे ढूंढ ,मैं तुझे ढूढूं
कोई हम में से खो गया है कहीं
इसी कमरे से हो के कोई विदा
इसी कमरे में छुप गया है कहीं
(यह आलेख 27 दिसम्बर २०१० में स्वार्थ ब्लॉगhttp://swaarth.wordpress.com/ पर प्रकाशित हुआ है वहाँ पूरा पढ़ा जा सकता है )

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कृष्ण बिहारी नूर लखनवी(1926-2003):चंद ग़जलें

उर्दू शायरी के नभ पर एक जगमगाते सितारे का नाम है कृष्ण बिहारी नूर लखनवी।गंगा-जमनी तहज़ीब ने हमें उर्दू दी और उर्दू ने नूर साब जैसे शायरों को जन्म दिया। नूर साब ने बोलचाल की उर्दू के सहारे जिंदगी के सभी रंग दिखाए हैं अपनी शायरी में।उनके यहाँ मिलन है तो बिछोह भी, खुशी है तो गम भी।

आम आदमी के खोने-पाने की दास्तान उनकी गज़लों में नाज़ुक सच्चे लखनवी अंदाज़ के साथ पेश की गयी है। इसके साथ ही सूफियत में भारतीय अध्यात्म को समो कर नूर साहिब ने ऐसे शेर गढ़े जिन्होंने पढ़ने और सुनने वालो को सदा चकित और चमत्कृत किया है। उनकी शायरी में जान और जानाँ के बीच के अजर-अमर संबंध गहरे तलिस्मी अंदाज़ में एक दूसरे में समाये हुए मिलते हैं। उनके काव्य की गहराई में पहुँचने के लिए, जैसा कि जिगर साब ने फरमाया है “एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है” वाली स्थति में पहुंचना ज़रूरी है। ये उनका कमाल है कि पाठक या श्रोता उनके दुःख में अपने को शामिल समझता है। उस मनोस्थति में अक्सर मिट जाता है अंतर सुनने और सुनाने वाले के बीच। मुझे कई मुशायरों में नूर साब को सुनने का सोभाग्य प्राप्त हुआ है। उनका शेर पढ़ने का अंदाज़ निराला और अनूठा था। खुद तो ग़ज़ल में डूब ही जाते थे काव्य के जादू में श्रोताओं को भी अपने साथ बहा ले जाते थे।

नूर साब ने अधिक तो गज़लें ही लिखी हैं परन्तु शायरी की अन्य विधाओं जैसे नज़्म और कतात भी काफी लिखे हैं। नूर साब अब हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उनकी शायरी उर्दू प्रेमियों के लिए प्रसाद है। उनके रचना संसार से पेश हैं कुछ खूबसूरत ग़ज़लें

आग है, पानी है, मिटटी है, हवा है, मुझ में

और फिर मानना पड़ता है के खुदा है मुझ में

अब तो ले दे के वही शख्स बचा है मुझ में

मुझ को मुझ से जुदा करके जो छुपा है मुझ में

जितने मोसम हैं सब जेसे कहीं मिल जाएँ

इन दिनों केसे बताऊँ जो फिजा है मुझ में

आइना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन

आइना इस पे है खामोश के क्या है मुझ में

अब तो बस जान ही देने की है बारी नूर

मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में

…..

इक ग़ज़ल उस पर लिखूं दिल का तकाजा है बहोत

इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहोत

रात हो दिन हो गफ़लत हो के बेदारी हो

उसको देखा तो नहीं उसे सोचा है बहोत

तिश्नगी के भी मुकामात हैं क्या क्या यानि

कभी दरिया नहीं काफी कभी कतरा है बहोत

मेरे हाथ की लकीरों के इजाफे हैं गवाह

मैंने पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहोत

कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है

घर की दहलीज़ पे ऐ नूर उजाला है बहोत

……

जिंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

और क्या जुर्म है पता ही नहीं

इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

सच घटे या बढे तो सच ना रहे

झूठ की कोई इन्तेहा ही नहीं

जिन्दगी मोत तेरी मंजिल है

दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

जिसके कारन फसाद होते है

उसका कोई अता-पता ही नहीं

केसे अवतार केसे पैगम्बर

एसा लगता है अब खुदा ही नहीं

जिंदगी बता अब कहाँ जाएं

ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं

चाहे सोने में के फ्रेम में जड़ दो

आईना झूठ बोलता ही नहीं

अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है

नूर संसार से गया ही नहीं

…..

नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद

वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद

मैं केसे किसी और सिम्त मोड़ता खुद को

किसी की चाह न थी दिल में तेरी चाह के बाद

ज़मीर कांप तो जाता है आप कुछ भी कहें

वो हो गुनाह से पहले के हो गुनाह के बाद

कटी हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की

छुपाता सर मैं कहाँ तुझ से रस्म-ओ-राह के बाद

हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी

गुनाह क्या है ये जाना मगर गुनाह के बाद

गवाह चाह रहे थे वो बेगुनाही का

ज़बां से कह न सके कुछ खुदा-गवाह के बाद

खतूत कर दिए वापस मगर मेरी नीदें ?

इन्हें भी छोड़ दो इक रहम की निगाह के बाद

…..

तेज़ हो जाता है खशबू का सफर शाम के बाद

फूल शहरों में भी खिलते हैं मगर शाम के बाद

उस से दरयाफ्त न करना कभी दिन के हालात

सुबह का भूला जो लोट आया हो घर शाम के बाद

दिन तेरे हिज्र में कट जाता है जेसे तेसे

मुझ से रहती है खफा मेरी नज़र शाम के बाद

कद से बढ़ जाए जो साया तो बुरा लगता है

अपना सूरज वो उठा लेता है हर शाम के बाद

तुम न कर पाओगे अंदाजा तबाही का मेरी

तुम ने देखा ही नहीं कोई शज़र शाम के बाद

मेरे बारे में कोई कुछ भी कहे सब मंज़ूर

मुझ को रहती ही नहीं अपनी ख़बर शाम के बाद

यही मिलने का समय भी है बिछड़ने का भी

मुझ को लगता है बहोत अपने से डर शाम के बाद

तीरगी हो तो वजूद उसका चमकता है बहोत

ढूढ़ तो लूंगा उसे नूर मगर शाम के बाद

……

लाख गम सीने से लिपटे रहे नागन की तरह

प्यार सच्चा था महकता रहा चन्दन की तरह

तुझको पहचान लिया है तुझे पा भी लूँगा

एक जनम और मिले गर इसी जीवन की तरह

अब कोई केसे पहुँच पायगा तेरे गम तक

मुस्कराहट की रिदा डाल दी चिलमन की तरह

कोई तहरीर नहीं है जिसे पढ ले कोई

जिंदगी हो गयी बेनाम सी उलझन की तरह

जेसे धरती की किसी शय से ताअल्लुक ही नहीं

हो गया प्यार तेरा भी तेरे दामन की तरह

शाम जब रात की महफिल में कदम रखती है

भरती है मांग में सिन्दूर सुहागन की तरह

मुस्कराते हो मगर सोच लो इतना ऐ नूर

सूद लेती है मसर्रत भी महाजन की तरह

…….

बस एक वक़्त का खंजर मेरी तलाश में है

जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है

ये और बात के पहचानता नहीं है मुझे

सुना है एक सितमगर मेरी तलाश में है

अधूरे ख्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया

शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है

ये मेरे घर की उदासी है और कुछ भी नहीं

दिया जलाए जो दर पर मेरी तलाश में है

अज़ीज़ हूँ मैं तुझे किस कदर के हर एक गम

तेरी निगाह बचा कर मेरी तलाश में है

मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है

हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है

वो एक साया है अपना हो या पराया हो

जन्म जनम से बराबर मेरी तलाश में है

मैं देवता की तरह केद अपने मंदिर में

वो मेरे जिस्म से बाहर मेरी तलाश में है

मैं जिसके हाथ में एक फूल देके आया था

उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है

वो जिस खुलूस की शिद्दत ने मार डाला नूर

वही खुलूस मुकर्रर  मेरी तलाश में है

…………

तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था

कोई न जान सका रख रखाव ऐसा था

बस मांग में सिन्दूर भर के छोड़ आये

अपना अगले जन्म का चुनाव ऐसा था

ग़ज़लों के कुछ अशआर

1

लब क्या बताएँ कितनी अज़ीम उसकी ज़ात है

सागर को सीपियों से उलटने की बात है

2

मुद्दत से एक रात भी अपनी नहीं हुई

हर शाम कोई आया उठा ले गया मुझे

3

ये जिस्म सबकी आँखों का मरकज़ बना हुआ

बारिश में जैसे ताजमहल भीगता हुआ

4

शख़्स मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था

सारी दुनिया जेब में थी हाथ में पैसा न था

5

हज़ार ग़म सही दिल में मगर ख़ुशी यह है

हमारे होंठों पे माँगी हुई हँसी तो नहीं

6

मैं तो अपने कमरे में तेरे ध्यान में गुम था

घर के लोग कहते हैं सारा घर महकता था

7

बेनियाज़ी उसकी कितनी जानलेवा है न पूँछ

अब उस के हाथ में न फूल है न पत्थर है

8

ये किस मुक़ाम पे ले आई जुस्तजू तेरी

कोई चिराग़ नहीं और रोशनी है बहुत

9

अब तो पर्दा ऐ देर ओ हरम उठा दे या रब

हो चुका जो तमाशा वो तमाशा है बहुत

10

गुज़रे जिधर जिधर से वो पलटे हुए नक़ाब

इक नूर की लकीर सी खिंचती चली गई

11

मैं तो गज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा

सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए

`12

उससे दरयाफ्त न करना कभी दिन के हालत

सुबह का भूला जो लौट आया हो घर शाम के बाद

(आलेख का काफी हिस्सा kb noor दिसम्बर २०१० में स्वार्थ ब्लॉगhttp://swaarth.wordpress.com/ पर मेरे द्वारा प्रकाशित है)

टूट गये शीशों के सफ़र में

कंटीली सरहद को तकते हैं मैं इस पार तू उस पार.

बिछड़ी मिटटी के टुकड़े हैं  मैं इस पार तू उस पार.

हुक्मरान बेगाने हैं अपने सिवा सबको को भूल चुके.

लेकिन भाई अपन अपने हैं मैं इस पार तू उस पार.

मिलन तभी होसके जो नफरत का बहता पानी सूखे.

विरह की नदी के किनारे हैं मैं इस पार तू उस पार.

बढ़ते अँधेरे में जानी पहचानी राहें कब की गुम हुईं .

बेबसी के सफर में अकेले हैं मैं इस पार तू उस पार.

सुनते हैं मेहदी-जगजीत की मुहब्बत भरी ग़ज़लें और.

बंद राहें हसरत से तकते हैं मैं इस पार तू उस पार.

???करें,आँखों के पानी से बुझती नहीं याद की आग

यूँ ही देर से बेठे सोच रहे हैं, दीवाना बने सोच रहे हैं

बादल उधर एसे ही बरसते होंगे जेसे इधर बरसते हैं

बहार यूँ ही महकती होगी जेसी खुशबु इधर होती है

यूँ ही ज़िन्दगी का गीत उधर भी गाया जाता होगा

हमारे जेसे ही जिंदगी का जश्न मनाया जाता होगा

सोग में बहती होंगी उधर आँसू की नदी बनी आँखे

इधर भी हैं भाई ग़म में समंदर छलकाती हुई आखें

दुःख-सुख तेरा हो या मेरा कब एक रंग का नहीं है

फिर क्यों अपना परचम-झंडा एक रंग का नहीं है

ये मतलबी हुक्मरान बिगड़े हुए हैं इन्हें रूठा रहने दें

आओ हम आगे बढ़ें नफरतों की सब दीवारें गिरा दें

ख्वाब देखता हूँ सफ़ेद कबूतरों भरा नीला आकाश है

इस्लामाबाद में है ईद का दिल्ली में दिवाली प्रकाश है

गिर गयी सरहदों से गुज़र रहे हैं मुहब्बत के काफले

इधर से भी उधर से भी बिछड़े हुए दोस्त हैं आ मिले

पुरानी भूल सुधार के अमन ओ तरक्की का निशान हुए

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सब के सब एक जान हुए

पर आंसू भरी आँख कह रही है सपने कब सच हुए हैं

भाई फासले हैं तेरे मेरे बीच वही जान लेवा फासले हैं

यूँ ही कभी जागती आँखों के सपनों से गुजर जाऊंगा

तेरी याद का गम दिल में लिए एक दिन मर जाऊंगा WagahBorderINDO-PAKISTANBORDER2013_15